Tuesday, February 19, 2008

धर्म - एक मीमांसा

मनुष्य को जानवर से इंसान बनाना था,
तब मेरा धरती पर आना हुआ
इंसान ने मुझे धारण किया
तब सभ्यता का अवतरण हुआ

कभी ईसा बनकर, कभी मसीहा बनकर
कभी राम के रूप में कभी रहीम के स्वरूप में
मैं इंसानियत की रूह क़ायम करता रहा
सत्य,करुणा, प्रेम, संयम
सभ्य समाज निर्माण में मेरा एक आयाम थे।

समाज बढ़ा, विकसित हुआ
और मैं, मैं विभाजित हुआ।
कभी गोल टोपी पहने अल्ला हुं के नारो ने
कभी गेरुआ पहने जय श्री राम के जयकारों ने
कभी सच्चा सौदा करने वाले नानक की ओट ने
तो कभी क्रॉस लटकाती धर्म परिवर्तन की चोट ने
इंसानी रिश्तों को काट दिया
और मुझे टुकड़ों-टुकडों में बांट दिया

अब कहीं ट्रेन में बम फटता है
या कहीं गिरती हुई ईमारत का ग़ुबार छंटता है
तो नुचा हुआ लुटा पिटा, चिथडों में तब्दील
खून से लथपथ, बेसहारा, हताहत
मैं बिखरा हुआ पड़ा रहता हूं

धरती पर बिखरे हुए मेरे विभिन्न टुकड़ों से
जब खून रिसता है,
तो उसमें एक ही दर्द होता है
उसमें एक ही रंग बसता है

मुझे ना जानने वाले ही एक दूसरे को काटते हैं
मुझे राम में, रहीम में ईसा में और नानक में बांटते हैं

मैं धर्म हूं, मेरा अर्थ धारण करना है,
एक दूजे में प्रेम का, सदभाव का संचारण करना है

मैं धर्म हूं, मेरे रूप अनेक हैं
किंतु परछाई एक हैं।

इंसान से जानवर बना मानव
फिर एक दिन मेरा अर्थ जानेगा
शरीरों में बसती मेरी एक आत्मा को पहचानेगा
उस दिन मेरी थकी हुई बोझिल आत्मा
फिर जी उठेगी
मेरे सम भावों की मुस्कुराहट फिर लहकेगी

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