सफ़हे पे दर्ज
दो ईस्वीसनों के बीच छोटी लकीर की तरह
जन और तंत्र के बीच का छोटी लकीर की तरह
पर आंख से एकदम ओझल
यह जनतंत्र
जन और तंत्र के बीच का
सिर्फ़ एक डैश ( - ) है
(जो समझो, उसके पहिये की कील है)
जिसे जनगण ने उस आदमीनुमा जंतु के हवाले कर दिया है
जो सियार और सांप के हाईब्रीड से
इंसानी मादा की कोख का इस्तेमाल कर पैदा हुआ है
और घुमा रहा है जनतंत्र का पहिया
लगातार उल्टा-पुल्टा, आगे के बजाय पीछे
पर भूख की जगह भाषा पर छिड़ी बहस में जुटे लोग
डैने ताने अपने को फुलाये बैठे हैं कि
उनका लोकतंत्र सरपट दौड़ रहा है
गंतव्य की ओर।
डैश पर टांगें फैलाये बैठा
पूरे तंत्र का तमाशागर यह जीव
जनता की बोटियों के खुराक पर
जिन्दा रहता है
लूटता है उनके वोटों को
घुस आता है सरकार की धमनियों में
वायरस बनकर और
डैश को लंबा करने की
हर मिनट
बहत्तर शातिर चालें चलता है ।
(सुशील कुमार की कविता)
साभारकृत्या
Wednesday, February 20, 2008
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