Wednesday, February 20, 2008

जनतंत्र एक डैश है

सफ़हे पे दर्ज
दो ईस्वीसनों के बीच छोटी लकीर की तरह
जन और तंत्र के बीच का छोटी लकीर की तरह
पर आंख से एकदम ओझल
यह जनतंत्र
जन और तंत्र के बीच का
सिर्फ़ एक डैश ( - ) है
(जो समझो, उसके पहिये की कील है)
जिसे जनगण ने उस आदमीनुमा जंतु के हवाले कर दिया है
जो सियार और सांप के हाईब्रीड से
इंसानी मादा की कोख का इस्तेमाल कर पैदा हुआ है
और घुमा रहा है जनतंत्र का पहिया
लगातार उल्टा-पुल्टा, आगे के बजाय पीछे
पर भूख की जगह भाषा पर छिड़ी बहस में जुटे लोग
डैने ताने अपने को फुलाये बैठे हैं कि
उनका लोकतंत्र सरपट दौड़ रहा है
गंतव्य की ओर।
डैश पर टांगें फैलाये बैठा
पूरे तंत्र का तमाशागर यह जीव
जनता की बोटियों के खुराक पर
जिन्दा रहता है
लूटता है उनके वोटों को
घुस आता है सरकार की धमनियों में
वायरस बनकर और
डैश को लंबा करने की
हर मिनट
बहत्तर शातिर चालें चलता है ।

(सुशील कुमार की कविता)


साभारकृत्या

Tuesday, February 19, 2008

धर्म - एक मीमांसा

मनुष्य को जानवर से इंसान बनाना था,
तब मेरा धरती पर आना हुआ
इंसान ने मुझे धारण किया
तब सभ्यता का अवतरण हुआ

कभी ईसा बनकर, कभी मसीहा बनकर
कभी राम के रूप में कभी रहीम के स्वरूप में
मैं इंसानियत की रूह क़ायम करता रहा
सत्य,करुणा, प्रेम, संयम
सभ्य समाज निर्माण में मेरा एक आयाम थे।

समाज बढ़ा, विकसित हुआ
और मैं, मैं विभाजित हुआ।
कभी गोल टोपी पहने अल्ला हुं के नारो ने
कभी गेरुआ पहने जय श्री राम के जयकारों ने
कभी सच्चा सौदा करने वाले नानक की ओट ने
तो कभी क्रॉस लटकाती धर्म परिवर्तन की चोट ने
इंसानी रिश्तों को काट दिया
और मुझे टुकड़ों-टुकडों में बांट दिया

अब कहीं ट्रेन में बम फटता है
या कहीं गिरती हुई ईमारत का ग़ुबार छंटता है
तो नुचा हुआ लुटा पिटा, चिथडों में तब्दील
खून से लथपथ, बेसहारा, हताहत
मैं बिखरा हुआ पड़ा रहता हूं

धरती पर बिखरे हुए मेरे विभिन्न टुकड़ों से
जब खून रिसता है,
तो उसमें एक ही दर्द होता है
उसमें एक ही रंग बसता है

मुझे ना जानने वाले ही एक दूसरे को काटते हैं
मुझे राम में, रहीम में ईसा में और नानक में बांटते हैं

मैं धर्म हूं, मेरा अर्थ धारण करना है,
एक दूजे में प्रेम का, सदभाव का संचारण करना है

मैं धर्म हूं, मेरे रूप अनेक हैं
किंतु परछाई एक हैं।

इंसान से जानवर बना मानव
फिर एक दिन मेरा अर्थ जानेगा
शरीरों में बसती मेरी एक आत्मा को पहचानेगा
उस दिन मेरी थकी हुई बोझिल आत्मा
फिर जी उठेगी
मेरे सम भावों की मुस्कुराहट फिर लहकेगी

Friday, February 15, 2008

शिकायत रह गई.......

प्यार में अब कहां वो शरारत रह गई
अब कहां वो छुअन वो हरारत रह गई

लैला औ शीरी के किस्से पुराने हो चले
अब कहां शोखियां, वो नज़ाकत रह गई।

प्यार किया जैसे एहसान हो भला,
शुक्रिया तो गया शिकायत रह गई

नवाब जी की गाड़ी अब छूटती नहीं
कहां वो तहज़ीब वो नफासत रह गई ।

मोहब्बत के अच्छे दाम मिलते कहां मानव
वक्त के बाज़ार में ऐसी तिज़ारत रह गई .

याद तुम्हारी

याद तुम्हारी ऐसी आई जैसे
उमस भरी गर्मी में पंखा चल जाए
ठिठुरती सर्दी में कंबल मिल जाए
पुरानी क़िताब में गुलाब मिल जाए
भूला हुआ उधार वापस मिल जाए
जैसे शीतलहर के बाद बसंती पुरवाई
याद तुम्हारी ऐसी आई...

जैसे बच्चे को मिले मनपसंद खिलौना
सर्द रातों में पुआल का बिछौना
जैसे अजीब से ख्वाबों का संजोना
खुशी पर भी आंखो का रोना,
जैसे करवट लोती तरुणाई
याद तुम्हारी ऐसी आई..

जैसे अचानक राह में भूला बिसरा दोस्त दिख जाए
आपकी किताब पर कोई अपनी कविता लिख जाए
जैसे कोई किरायेदार हमेशा को मकान में टिक जाए
क़ीमती सी अमानत कोई हमेशा को रख जाए,
जैसे किसी के ज़िक्र आने पर होती जगहंसाई
याद तुम्हारी ऐसी आई...

जैसे गांवों में उड़ती सौंधी सी धूल
पेड़ों पर ऊगा गूलर का फूल
जैसे होली में उड़ता गुलाल
संगत में छिड़ती मीठी सी ताल
जैसे धुन कोई दिल ने गुनगुनाई
याद तुम्हारी ऐसी आई..

पंकज रामेन्दू मानव